ई-पुस्तकें >> हमारे बच्चे - हमारा भविष्य हमारे बच्चे - हमारा भविष्यस्वामी चिन्मयानंद
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वर्तमान में कुछ काल और जुड़ जाने पर भविष्य बन जाता है। वर्तमान तथा कुछ समय ही भविष्य है।
हमारे बच्चे - हमारा भविष्य
वर्तमान में कुछ काल और जुड़ जाने पर भविष्य बन जाता है। वर्तमान तथा कुछ समय ही भविष्य है। अत: हमारा वर्तमान कार्य तथा इसके आगे किया कार्य ओर उसकी उपलब्धियाँ ही भविष्य का जगत् होगा। भविष्य केवल वर्तमान जगत् का ही क्रमागत रूप नहीं है, ऐसा कभी नहीं हो सकता। वर्तमान जगत् कुछ काल तक बनाया-बिगाड़ा जाता है तो उसके बाद उसका अवशिष्ट रूप ही भविष्य है- वह चाहे भला हो या बुरा, वह चाहे बना हो या बिगड़ा।
जब हम कहते हैं कि आज का ही जगत् कल का भावी जगत् होता है, तो इसका क्या अर्थ है? आज के मनुष्य और उनका योगदान ही भविष्य का जगत् बनेगा। उनकी अपनी जीवन शैली होगी। आज के बयोवृद्ध पुरुष भले ही भविष्य में न रह जायें, किन्तु आज के बच्चे तो भविष्य में रहेंगे। अत: यह स्वाभाविक है कि हम वर्तमान बच्चों का सुन्दर स्वभाव निर्मित करें, उन्हें उच्च मूल्यों का आदर करना सिखावें उनके आदर्श ओर विचार महान् हों तो निश्चय ही हम एक सुन्दर और व्यवस्थित भविष्य बनने की आशा कर सकते हैं। हम अभी जैसा उत्कृष्ट जगत् देखना चाहते हैं वह भविष्य में बन सकता है।
भविष्य का यह रूप अपने जीवन-काल में नहीं आ सकता। समाज में कोई परिवर्तन लाने के लिए एक लम्बे समय की आवश्यकता होती है। परिवर्तन तो होगा ही, किन्तु बदली हुई अगली पीढ़ी क्या परिवर्तन लाती है, यही देखना है। इसीलिए हम कहते हैं कि आज के बच्चे ही कल के भविष्य हैं। हमें अपने बच्चों को सिखाना होगा कि वे सही विचार करें. सही निर्णय लें और अपने निर्णय के अनुसार जीवन जीने का साहस करें।
आज भारत की इतनी दयनीय दशा इसीलिए है कि शायद पूर्व काल में बच्चों की उपेक्षा की गयी है। पूर्व काल में उनकी उपेक्षा अबश्य हुई है, यह आज मैं अपने आसपास के मनुष्यों के चारित्रिक गठन देखकर निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ। हमारे देश में प्रतिभावान मनुष्य कहीं नहीं दिखाई देते 'प्रतिभावान मनुष्यों के बिना देश का कोई भविष्य नहीं होता। संसार के सभी विकसित देश इस स्थिति में तभी पहुचे हैं जब इस पीढ़ी के प्रतिभावान पुरुषों ने गंभीर विचार किया, योजना बनाई और उसके अनुसार उन्होंने साहसपूर्वक कार्य किया। अपने देश में हम जहाँ कहीं दृष्टि डालते हें पशु-प्रवृत्ति के मनुष्य दिखाई देते हैं, नितान्त स्वाथीं, अन्य लोगों की कोई चिन्ता नहीं, अपने देश का उत्थान करने की कोई योजना नहीं, न देश-प्रेम, न समाज-प्रेम। ये सब उच्च आदर्श विनष्ट हो गये। पशुओं की तरह हम सब अपने पेट भरने में लगे हैं और जनसंख्या बढ़ाते जा रहे हैं। उसी के फलस्वरूप नाना प्रकार की समस्यायें उत्पन्न हो रही हैं।
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